इसराइल पर फ़लस्तीनी चरमपंथी संगठन हमास के हमले के बाद भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इसराइली प्रधानमंत्री बिन्यामिन नेतन्याहू से कहा, “इस मुश्किल घड़ी में भारत इसराइल के साथ खड़ा है.”
मोदी ने अचानक हुए हमास के हमले के बारे में कहा कि “आतंकवादी हमले की ख़बर” से वो चिंतित हैं. उन्होंने अपने संदेश में फ़लस्तीन का ज़िक्र नहीं किया जबकि दशकों पहले से (नेहरू, इंदिरा के दौर से) फ़लस्तीन के साथ भारत के रिश्ते बेहतर रहे हैं.
इसराइल और फ़लस्तीन के साथ भारत के रिश्ते वक़्त के साथ कैसे बदलते गए इसे लेकर अख़बार इंडियन एक्सप्रेस ने संयुक्त राष्ट्र में भारत के स्थायी प्रतिनिधि रहे चिन्मय गरेखान से बात की.
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1993 से लेकर 1999 के बीच संयुक्त राष्ट्र महासचिव ने उन्हें मध्य-पूर्व शांति प्रक्रिया के लिए विशेष दूत नियुक्त किया था. वहाँ गरेखान 2005 से 2009 तक मध्य-पूर्व के लिए भारत के विशेष दूत रहे.
आज़ादी के बाद के शुरुआती सालों की कूटनीति की भारत का झुकाव फ़लस्तीन की तरफ़ क्यों था. इस बारे मे चिन्मय गरेखान कहते हैं 1947 में जब संयुक्त राष्ट्र में फ़लस्तीनी अरबों और यहूदियों के बीच फ़लस्तीन के बँटवारे का प्रस्ताव आया तो भारत ने उसके ख़िलाफ़ वोट दिया.तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू मानते थे कि एक राष्ट्र में रहने की बजाय अरबों और यहूदियों को अधिक स्वायत्तता मिलनी चाहिए और यरुशलम को स्पेशल स्टेटस दिया जाना चाहिए.नेहरू का नज़रिया महात्मा गांधी के नज़रिए से मेल खाता था. गांधी मानते थे कि इतिहास ने यहूदियों के साथ नाइंसाफी की है. लेकिन वो फ़लस्तीन में यहूदियों के लिए एक अलग राष्ट्र बनाए जाने की धारणा के ख़िलाफ़ थे क्योंकि उनका मानना था कि ये पहले से वहां रह रहे छह लाख अरबों के साथ अन्याय होगा.
फ़लस्तीन की समस्या के लिए नेहरू ब्रितानी साम्राज्यवाद को ज़िम्मेदार ठहराते थे.इसराइल के बनने के बाद भारत का नज़रिया कई कारणों से प्रभावित हुआ. भारत ने 1950 में इसरइल को राष्ट्र के रूप में मान्यता तो दी लेकिन 1992 तक उसके साथ कूटनतिक रिश्ते बहाल नहीं किए.भारत की आबादी का एक बड़ा हिस्सा मुसलमानों का था. आज़ादी के बाद के दौर में नेता उनकी राय को लेकर संवेदनशील थे और अरबी लोगों के प्रति उनकी सहानिभूति थी. भारत अरब मुल्कों को भी ख़ुद से दूर नहीं करना चाहता था. पाकिस्तान फ़लस्तीन का समर्थन करता था और उस वक़्त भारत को भी उसके बराबर रहना था.